मंत्रीश्वर वस्तुपाल ने सात चिंतन सूत्र दिये हैं .
प्रथम सूत्र है – सद् वांचन में नियमितता .
प्रतिदिन कुछ नया पढना चाहिये , सिखना चाहिये . नयेंनयें शुभ विचार मन में जागते रहे यह बहोत जरूरी है . आजतक जो नहीं जाना है ऐसा कुछ आज जानना है . आजतक जो नहीं पढा है ऐसा कुछ आज पढना है . आजतक जो नहीं समझा है ऐसा कुछ आज समझना है . नया सिखने से नयी सोच मिलती है . सद्वांचन से मिला हुआ हरएक नया विचार कोई अलग आनंद देता है . हम सरल सरल पढने की आदत रखते हैं उसके बजाय हमें थोडा कठिन भी पढना चाहिये . कहा जाता है कि रोजरोज नयानया वांचन करनेवाला बड़ी सृजनशीलता का धनी होता है . सद् वांचन का समय निश्चित रखिये . ऐसी किताब पढ़े जिस में तात्त्विक विषय वस्तु का विवरण हो . उपदेश और कथा पढ़ना आसान है . तात्त्विक विषय , पढ़ने में कठिन होता है .
बड़ेबड़े योगी शारीरिक कष्ट के समय में तत्त्वचिन्तन में लीन रहते है और पीड़ा से निर्लेप ह जाते है . स्वाध्याय से आत्मचिंतन का प्रशिक्षण मिलता है . जिसे आत्मचिंतन की आदत लग गयी वह आध्यात्मिक आनंद तक पहुंच सकता है . एक महिने में दो तीन नयी किताब पढ़ लिया कीजिये . आप खुद को शुभ वांचन से संस्कारित करते रहे . जिसका वांचन विशाल है उसका हृदय विशाल बनता है . जिसका वांचन सीमित है उसका मन छोटा रह जाता है . ग्रंथ के मूल सूत्र को सीखते रहिये . सूत्र के अर्थ को समज़ते जाइए . सूत्र की प्रेरणा को जीवन में अवतरित करते जाइए . यही मानसिक प्रसन्नता का प्रमुख मार्ग है .
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द्वितीय सूत्र है – भगवत् चिंतन .
आप मंदिर में आएं , मंत्रजाप करें यह एक धर्मात्मा के रूप में आप की प्रिय प्रवृत्ति है . सवाल केवल यह है कि आप मंदिर में और मंत्रजाप में एकाग्र बन पाते हो या नहीं . आप मरने के बाद जिसे साथ नहीं ले जा पाएगे उसे जीते जी भूलने की कुछ क्षण आप को बनानी होती है . वो क्षण मंदिर और मंत्रजाप के जरिये हांसिल हो सकती है . हमें दुनियादारी विचारो से अलग होने की कला हांसिल करनी चाहिए . हमें धर्म को अपने अवचेतन मन तक ले जाना चाहिए . एकाग्रता के बिना यह हो नहीं सकता . केवल क्रिया और विधिपालन पर मत रूको . जो भी करो उसमें एकाग्रताकी ऊर्जा भी भरते रहो .
आप रात में नींद लेते हो और स्वप्न में आप को भगवान् , मंदिर या गुरु दिखे या कोइ मंत्र सुनाई दे , ऐसा महीने में एक – दो बार होता है तब समज़ना कि आप के दैनिक धर्म को आप ने एकाग्रता का बल दिया है .
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तृतीय सूत्र है – सत् पुरुषों का आत्मीय समागम .
आप के आसपास तीन प्रकार के धर्मात्मा देखने मिलते हैं . एक , वह धर्मात्मा जो अाप की तरह धर्म करते हैं . दो , वह धर्मात्मा जो अाप से बहेतर धर्म करते हैं . तीन , वह धर्मात्मा जिस की धर्मप्रवृत्ति और धर्मभावना की ऊंचाई को आप छू नहीं सकते है . तीनो प्रकार के धर्मात्माओं के साथ आप के आत्मीय संबंध बनने चाहिए . जैसे धर्मगुरु उपदेश देते है वैसे धर्मात्मा उपदेश नहीं
देते है लेकिन धर्मात्मा का व्यवहार और आचरण एकदम प्रेरणादायी होता है .
फूल की सुगंध लेने के लिए फूल के नजदीक में जाना जैसे जरूरी है वैसे खुद को प्रेरित करने के लिए उत्तम आत्माओं के सामीप्य में रहना आवश्यक है .
आप अधिक धर्म करें न करें यह आप के निजी संयोग पर निर्भर है . एक दो महान् धर्मात्मा के साथ आप का आत्मीय संबंध हो यह आप के लिए बड़ी बात होगी . ऊंचा काम करनेवाले का जीवन भी ऊंचा होता है . आध्यात्मिक प्रगति का पथप्रदर्शन ऐसे सत् पुरुष के जरिये मिलता है .
साधु और सत्पुरुषों के साथ आत्मीय संबंध रखने के तीन मार्ग है . एक , उन के साथ नियमित रूप से वार्तालाप करते रहें . दो , उन के द्वारा निर्दिष्ट कार्य को संपन्न करने की श्रेष्ठ कोशिश करें . तीन , अपने परिवार जन और मित्र को उन के साथ जोड़ें .
सत् समागम जीवन का बड़ा सौभाग्य है .
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चतुर्थ सूत्र है – उत्तम पुरुषों की एवं उत्तम कार्यों की प्रशंसा .
शुभ संस्कार और सद् आचार से जिसने जीवन को पावन बनाया हो ऐसे सत् पुरुषों की प्रशंसा प्रतिदिन करनी चाहिये . आप जिसकी तारीफ करते हो उस के लिये आप के मन में आदर होता है . प्रशंसा बाद में होती है . प्रशंसा के पूर्व मन में आदर बनाया जाता है . आप एक सत् पुरुष की प्रशंसा करें तो आप का आदर भाव एक सत् पुरुष तक सीमित रहेगा . आप दश सत् पुरुष की प्रशंसा करें तो आप का आदर भाव दश सत् पुरुष तक विस्तारित होगा . आप एक सो या एक हजार सत् पुरुषों की प्रशंसा करें तो आप का आदर भाव एक सो या एक हजार सत् पुरुषों तक फैल जाता है . अच्छे आदमी की प्रशंसा करने से आप के भीतर में अच्छाई का बल बढता है . हम जिस से , जो बात करें उसमें किसी सत् पुरुष की प्रशंसा का विषय भी आना चाहिये . सत् पुरुष की प्रशंसा करना यह एक अच्छी आदत है . दिन में दो बार , दस बार आप अलग अलग सत् पुरुष की प्रशंसा करो . आप जिस सत् पुरुष की प्रशंसा करेंगे उसकी ऊर्जा आप को मिलेगी . आप जितने अधिक सत् पुरुषों की प्रशंसा करेंगे उतने ही अधिक सत् पुरुषों की ऊर्जा आप को मिलती जायेंगी .
हमें दुनियाभर की खबरें अन्य को सुनाने की आदत है . हम शुभ प्रवृत्तिओं की अच्छी खबर अन्य को सुनाए ऐसी आदत हमे बनानी चाहिए . अलग अलग देशो में , राज्यों में , शहरों में , गाँवों में कुछ न कुछ अच्छा होता ही रहता है . हमें दिनभर में
ऐसी शुभ खबरें खोजते रहनी चाहिये और अन्य तक ऐसी शुभ खबरें पहुंचाते रहेनी चाहिये .
उत्तम पुरुषों की एवं उत्तम कार्यों की प्रशंसा से वाणी एवं मानसिकता को उत्तम बल मिलता है .
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पंचम सूत्र है : निंदा का त्याग .
किसी में कोइ कमज़ोरी होती है तो वह दिखती है . यह बात सही है की किसी के दोष देखने नही चाहिए . पर दोष होंगे तो दिखेंगे भी . हम आँखों को नहीं रोक सकते हैं लेकिन अपनी जबान को रोक सकते है . किसी में कोइ दोष दिखे तो हम फौरन उलटा बोलना शुरू कर देते है . यह हमारे लिए उचित नहीं है . हमारी परम्परा में गुणानुवाद शब्द है किंतु दोषानुवाद शब्द नहीं है . गुण का उद् गान करने से गुणानुवाद होता है जो हमारा कर्तव्य है . दोष का उद् गान करने से दोषानुवाद होता है जो हमारा कर्तव्य नहीं है .
हम अन्य की निंदा करते हैं तब मन में प्रच्छन्न रूप से द्वेष का पोषण होता है . निंदा से आत्मीय सद् भाव का नाश होता है . जो बारबार निंदा करता है वह विश्वास पात्र नहीं हो सकता है . निंदा लाचारी में नहीं होती है , निंदा जानबुझकर होती है . निंदा के जरिये आपसी वैर और वैमनस्य बढता रहता है . आप जिसकी निंदा करें वह उस के जवाब में फिर आप की भी निंदा करता है इसतरह एक अशांत मनोवृत्ति की धारा चल पड़ती है . भला इसी में है कि आप निंदा से दूर ही रहे .
कोइ किसी की निंदा कर रहा हो उसे सुनना भी एक गलत आदत है . कुछ लोग तो जैसे निंदाओ को फैलानेका ठेका लेकर घूमते होते हैं . जो आप के पास आकर अन्य की निंदा करता है वो अन्य के पास जाकर आप की निंदा करेगा ही . अतः निंदाशील नारदों से हंमेशा दूरी बनाए रखें .
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छठा सूत्र है : प्रियवचन हितवचन .
पशु और मनुष्य में बड़ा फर्क यह है कि पशु के पास आवाज़ है पर भाषा नहीं जबकि मनुष्य के पास आवाज़ भी है और भाषा भी है . मनुष्य बोलता है . जो बोला गया है उसे मनुष्य सुनकर
समझ सकता है . हम जो बोले उसे सुनकर , सुननेवाला दुःख या वेदना महसूस करे ऐसा बारबार बनता है . हमारी बात सुनकर कोइ दुखी हो जाये , तनाव में या डर में आ जाए यह किसी भी रूप में आदर्श परिस्थिति नहीँ है . हम जो बोले उसमें सौम्यता का स्पर्श होना चाहिए . आदेश या आग्रह की भाषा कठोर होती है . अनुनय या पृच्छा की भाषा कोमल होती है . बातबात में चिढ़ना , संस्कारिता की निशानी नहीं है . आप का वचन किसी को मानसिक संताप देता है तब आपकी अहिंसावृत्ति को नुकसान हो जाता है . अपशब्द भी न बोले . तुच्छवचन का प्रयोग न करे . किसी की मज़ाक भी ऐसे न उड़ाए कि उसका दिल ही टूट जाए . अप्रियवचन आपकी कमज़ोरी है यह याद रखे .
आप अन्य को नुक्सान पहुंचाने वाली बात बोले उसे अहितवचन कहा जाता है . किसी का धार्मिक शुभभाव नष्ट हो ऐसा नहीं बोलना चाहिए . किसी के जीवन व्यवहार में बाधा खड़ी हो जाए ऐसा कुछ भी बोलना नहीं चाहिए . सच बोलना जरूरी होता है , सच कडुआ भी होता है लेकिन सच लाभकारी होता है इसलिए सच बोला जाए यह जरूरी है . सावधानी इतनी रखनी चाहिए कि – अन्य को नुकसान पहुंचाने का खुन्नस आप के मनमें न हो . आपके वचन के कारण कोइ आदमी मुश्किल परिस्थिति में फंस जाए वह दयाभाव से विपरीत आचरण है . आप के वचन से अन्य का हित हो यह जितना जरूरी है उतना ही जरूरी है कि आप के वचन से अन्य किसी का अहित न हो .
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सातवा सूत्र है – आत्म तत्त्व की भावना .
आत्म तत्त्व की भावना कें तीन सूत्र हैं .
प्रथम सूत्र यह है कि –
हमारे मन में राग , द्वेष , क्रोध , मान , माया , लोभ , इर्षा आदि भाव बनते रहते हैं यह हमारा अनुभव है . ये सारें मनोभाव आत्मा का स्वभाव नहीं है . ये मनोभाव कर्मोदय के कारण आतें हैं . इस विषय में स्पष्ट रहना चाहिये एवं इस विषय में गंभीर अभ्यास करते रहना चाहिये .
द्वितीय सूत्र यह है कि –
हमारे साथ एक शरीर है . हमें शरीर पर ममत्व है . आध्यात्मिक सत्य याद रखिये कि – मैं शरीर में रहता हूं पर मैं शरीर नहीं हूं . मैं शरीर से अलग एक आत्मा हूं . जैसे जैसे यह विचार व्यापक होता जायेगा वैसे वैसे अनेक क्लेश कम होते जायेंगे .
तृतीय सूत्र यह है कि –
निर्वाण , मोक्ष , परमपद , पूर्णता , सत् चित् आनंद ऐसे विविध शब्दों के द्वारा आत्मा की विशु्द्ध अवस्था का वर्णन , शास्त्र में किया गया है . आप इस अवस्था को हांसिल करे यही धर्म साधना का मूल उद्देश्य है . आप सिद्ध , बुद्ध , पारंगत परमेश्वर की उस अगोचर अवस्था के विषय में उत्कट श्रद्धा बनाएं और उसका चिंतन करते रहें . आप शुभ आचरण और शुद्ध अंतःकरण की श्रेष्ठ भूमिका को बनाते रहें . जनम – मरण के चक्र से मुक्त होकर शाश्वत स्थिरता धारण करने के लिये मनुष्य का अवतार मिला है . अल्पजीवी तुच्छ लक्ष्यों में मन को फंसने न दे .
आत्म तत्त्व की भावना कें तीन सूत्र सरल नहीं है . इसे समझने की कोशिश करें , करते रहें .
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मंत्रीश्वर वस्तुपाल के सात चिंतन सूत्र का स्वाध्याय बार बार करते रहिये .
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