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नवपद की पूजा को यंत्र पूजा तक सीमित मत रखिए , उसे एक्टिविटी का रुप भी दीजिए

आप को किसी से प्रेरणा मिलती है , मार्गदर्शन मिलता है . आप उस से उत्साहित होकर पुरुषार्थ शुरू करतें हैं . आप सच्ची लगन से पुरुषार्थ करते हैं तब आपको अंदाजा नहीं होता है कि आपको जो फल मिलेगा वह कितना बड़ा होगा ? हमारा काम होता है पुरुषार्थ करना . हम पुरुषार्थ करने में कमी नहीं रख सकते हैं , हम पुरुषार्थ करने से दूर नहीं रह सकते हैं , हम पुरुषार्थ करने में आलस्य नहीं बना सकते हैं . पुरुषार्थ तो पूरी ताकत से करना चाहिए . प्रेरणा से आता है पुरुषार्थ और पुरुषार्थ से आता है सुनिश्चित परिणाम . परिणाम सर्वश्रेष्ठ होता है उस से समझ में आता है कि पुरुषार्थ सर्वोत्कृष्ट था . 

श्रीपाल राजा ने मयणा सुंदरी से प्रेरित होकर नवपद की आराधना की थी . श्रीपाल कथा के तीन चरण हैं . प्रथम चरण में श्रीपाल राजा के पूर्व भव की कथा है . द्वितीय चरण में श्रीपाल राजा के संघर्ष एवं पुरुषार्थ की कथा है . तृतीय चरण में श्रीपाल राजा का ऐश्वर्य दिखाया गया है . महामहोपाध्याय श्री यशोविजयजी महाराजा बता रहे हैं कि 

ત્રિભુવનપાલાદિક તનય , મયણાદિક સંયોગ , નવ નિરુપમ ગુણનિધિ હુઆ , ભોગવતાં સુખભોગ ।।

ગય રહ સહસ તે નવ હુઆ , નવ લખ જચ્ચ તુરંગ , પત્તિ હુઆ નવ કોડિ તસ , રાજનીતિ નવરંગ ।।

રાજ નિ:કંટક પાલતાં , નવ શત વરસ વિલીન , થાપી તિહુઅણપાલને , નૃપ હુઓ નવપદ લીન ।।

अर्थ : श्रीपाल राजा , नव रानीओं के साथ आनंद प्रमोद कर रहे हैं . श्रीपाल राजा को नव पुत्र हैं , प्रथम पुत्र का नाम है त्रिभुवन पाल . श्रीपाल राजा की युद्धसेना में नौ हजार हाथी हैं ,  नौ हजार रथ हैं , नौ लाख अश्व हैं , नौ करोड़ सैनिक हैं . श्रीपाल राजा नौ सो साल तक राजा बने रहें . जीवन के अंतिम दिनों में श्रीपाल राजा ने राज्य संचालन त्रिभुवनपाल को सौंप दिया था और स्वयं नवपदजी की आराधना में एकरस हो गएं थें . आयु समाप्त होने पर श्रीपाल राजा देवलोक में उत्पन्न हुएं थें . तत् पश्चात् मनुष्य भव , देव भव , मनुष्य भव , देव भव ,  मनुष्य भव , देव भव में जन्म लेकर श्रीपाल अवतार से नवम भव में श्रीपाल राजा की आत्मा ने मोक्ष अवस्था प्राप्त की . 

श्रीपाल राजा का पुरूषार्थ शक्तिशाली था . इसी वजह से श्रीपाल राजा को परिणाम सर्वोत्कृष्ट मिला . प्रेरणा दी मयणा सुंदरी ने . पुरूषार्थ किया श्रीपाल राजा ने . परिणाम जो आया वह श्रीपाल राजा के रास में लिखा है . किसी भौतिक अभीप्सा से लालायित होकर साधना करना उचित नहीं है .  साधना नि:स्वार्थ भाव से होनी चाहिए . लेकिन जो भी साधना हो वह शक्तिशाली होनी चाहिए . श्रीपाल राजा ने संकट के दिनों में मयणा सुंदरी से प्रेरणा लेकर नवपद की आराधना की थी . लेकिन संकट के दिन समाप्त हो गएं तब मयणा सुंदरी ने श्रीपाल राजा को जो बताया था उस का निरुपण श्रीपाल राजा के इस प्रकार मिलता है : 

મયણાસુંદરી ત્યારે ભણે , પૂર્વે પૂજ્યું સિદ્ધચક્ર , ત્યારે ધન થોડું હતું , હવણાં તું ઋદ્ધે શક્ર ।। 

ધન‌‌ મહોટે છોટું કરે , ધર્મ ઉજમણું જેહ , ફલ પૂરું પામે નહીં , મત કરજો તિહા સંદેહ ।।

अर्थ : हे राजन् , जब आप ने पहली बार सिद्धचक्र का पूजन किया तब आप के पास संपत्ति कम थी . पर आज तो आप के पास इन्द्र समान ऐश्वर्य है . हमारे पास धन अधिक हो और हम धनव्यय एकदम अल्प करते रहें तो हमें फल छोटा ही मिलता है . मयणा सुंदरी की बात सुनकर श्रीपाल राजा विशेष रूप से नवपद की आराधना करते हैं . 

१.अरिहंत पद की आराधना करते हुए राजा ने नौ जिनालय बनवाएं , नौ जिन मूर्ति बनवाईं एवं नौ जिनालयों का जीर्णोद्धार करवाएं .

२.सिद्ध पद की आराधना करते हुए राजा ने सिद्ध भगवंतों की मूर्ति की पूजा की एवं सिद्ध भगवंतों का ध्यान धारण किया .

३.आचार्य पद की आराधना करते हुए राजा ने आदर , भक्ति , वंदना , वेयावच्च , शुश्रूषा के द्वारा सूरिभगवंतों की आराधना की .

४.उपाध्याय पद की आराधना करते हुए राजा ने ज्ञान दाताओं को आहार , वस्त्र , आसन आदि समर्पित किया .

५.साधु पद की आराधना करते हुए राजा ने श्रमण श्रमणी भगवंतों को अन्न – जल – औषधि – वस्त्र – निवास आदि अर्पित किया एवं नमन – वंदन – अभिगमन आदि विनय किया .

६.दर्शन पद की आराधना करते हुए राजा ने तीर्थ यात्रा , संघ पूजा , रथयात्रा , शासन प्रभावना  , शासन उन्नति आदि श्रद्धामूलक कार्य कियें .

७. ज्ञान पद की आराधना करते हुए राजा ने स्वाध्याय के प्रत्येक प्रकारों में विशेष पुरूषार्थ किया एवं शास्त्रों के प्रकाशन , पूजन , संरक्षण में अभिरुचि बनाई .

८. चारित्र पद की आराधना करते हुए राजा ने विविध व्रत नियमों को ग्रहण किया तथा विरतिधारी आत्माओं की उत्कृष्ट भक्ति की .

९. तप पद की आराधना करते हुए राजा ने बाह्य एवं अभ्यंतर तप की आराधना , निराकांक्ष मन से की .

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