देवगिरि में पौषधशाला का निर्माण शुरू हुआ . देखते ही देखते दीवारें खड़ी हो गयी . सुवर्ण के छप्पर खुद देदशाह लाने वाले थें . इसबीच कुछ किरानेवाले दूर देशांतर से आएं थें . उन्हें केसर के ५० थैले बेचने थें . देवगिरि में एक भी थैला नहीं बिका . वॉ लॉग देवगिरि को अपशब्द सुना रहे थें . पौषधशाला निर्माण में कार्यरत देदशाह ने यह देखा . फौरन उन्होंने सारा केसर खरीद लिया . ४९ थैलों का केसर , पौषध शाला की दीवार रंगने में लगा दिया जिसके कारण पौषध शाला की अंदरूनी एवं बाहरी दीवारें सोनेरी रंग की दिखने लगीं . इस प्रकार सोने की ईंटो का वचन पालन भी हो गया . एक थैला केसर बचा वह जिनालय को अर्पित कर दिया . पौषध शाला के उपर सुवर्ण के बड़े बड़े छप्पर भी लगाए गएं . इस पौषध शाला को कुंकुम रोल शाला ऐसा नाम मिला .
वैसे तो पौषधशाला निर्माण का पूर्ण लाभ देदशाह ने लिया था लेकिन देवगिरि के सभी श्रावकों को कुछ न कुछ लाभ मिलना चाहिए इसलिए पौषध शाला को सभी श्रावकों ने अर्धार्ध रूपैया ( પા રૂપિયો = चार आना ) अर्पित किया . इस प्रकार पौषध शाला निर्माण का लाभ एवं शय्यातर बनने का पुण्य सकल संघ को मिल गया .
विद्यापुर एवं देवगिरि में देदशाह ने दान की प्रवृत्ति बहोत अच्छे से करी अत: अल्प समय में देदशाह , कनकगिरि ( = सोने का पर्वत ) के उपनाम से मशहूर हो गएं .
एकदा विमलश्री ने सपना देखा कि घर आंगन में अपने पास एक दीपक प्रगट हुआ है . एक दीपक में से अनेक दीपक प्रगट हुएं . दीपक पूरे विस्तार में फ़ैल गएं . फिर दीपक समुद्र तक पहुंचें और समुद्र भी दीपक की रोशनी से चमक ऊठा .
जागकर विमलश्री ने स्वप्न की जानकारी देदशाह को दी . देदशाह ने प्रसन्न होकर कहा कि : कोइ बड़े शुभ समाचार मिलनेवाले है .
कुछ ही समय में पता चला कि विमलश्री गर्भवती हुई है .
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