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चातुर्मास कथा : सुकृत सागर . २

देदशाह को जेल से किसी दैवी पुरुष ने बाहर निकाल कर जंगल में छोड़ दिया . वहां उसे विमलश्री मिली . वह कैसे जंगल में आ पहुंची ? घटना ऐसी बनी थी – देदशाह ने कैद होने से पूर्व अपने सेवक के द्वारा अपनी पत्नी को सांकेतिक भाषा में संदेस भेजा था कि भाग जाओ . विमलश्री पुरुष का वेश बनाकर घर से निकल गई थी . रात किसी सलामत जगह पर छिपकर बिताई और सुबह जंगल रास्ते निकली ही थी कि देदशाह मिल गये . सुवर्ण सिद्धि आम्नाय की लिखित पोथी विमलश्री साथ लेकर आई थी . दोनों नांदुरी से दूर दूर , विद्यापुर शहर में रहने लगें . सुवर्ण सिद्धि के द्वारा अर्थोपार्जन होता रहा .

देदशाह की श्रद्धा थी कि उन्हें स्तंभन पार्श्वनाथ की कृपा से नांदुरी में कैद से मुक्ति मिली थी . इसी श्रद्धा के चलते उन्होंने स्तंभन पार्श्वनाथ के लिए नगद सुवर्ण के आभूषण बनवायें . स्वयं खंभात जाकर प्रभु को आभूषण चढाएं एवं तीन चार दिन रूककर विशिष्ट प्रभु भक्ति की .
विद्यापुर में देदशाह , दानवीर के रूप में मशहूर हुएं . अधिक से अधिक लोगों को दान देकर दुःखमुक्त रखते थें . एकबार देवगिरि ( आज का दौलताबाद ) गयें . वहां जैन संघ पौषधशाला का निर्माण करवाने जा रहा था . निर्माण लाभोत्सुक परिवार अनेक थें . सभी को पूर्ण लाभ लेना था , अतः किसे लाभ दिया जाए इसका निर्णय हो नहीं रहा था . देदशाह ने देवगिरि जैन संघ को प्रार्थना की : पौषधशाला निर्माण का लाभ मुझे दीजिए .
देवगिरि जैन संघ ने सोचा : ‘ स्थानिक लोग को लाभ मिले यही ठीक है , देदशाह को लाभ नहीं देना है लेकिन इन्हें मना कैसे करें ? ‘ फिर देदशाह को टालने के लिए कहा गया कि मिट्टी की ईंटों से पौषधशाला बनानेवाले लोग देवगिरि में उपलब्ध है . आप अगर सुवर्ण की ईंटों से पौषधशाला बना सकते है तो हम आप को लाभ दे सकते है .
ऐसा लगा था कि देदशाह प्रस्ताव का स्वीकार नहीं करेंगे . लेकिन देदशाह ने तो सुवर्ण की ईंटों से पौषधशाला बनाने का प्रस्ताव क़ुबूल कर लिया . अब संघ अचंभे में पड़ गया . ज्ञानी गुरुभगवंत को पुछा गया जिसका जवाब यह था कि सुवर्ण की ईंटों से पौषधशाला बनाने से सुरक्षा का खतरा बढ़ जाएगा . सुवर्ण की ईंटों से पौषधशाला नहीं बनानी चाहिए . देदशाह ने कहा कि मुझे संघ ने सुवर्ण विषयक प्रस्ताव रखा था , पौषधशाला में सुवर्ण की ईंटें न सही , सुवर्ण के छप्पर तो जरूर रहेंगे .

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