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जैन सिलेबस : दर्शन आचार . ४ : अमूढ दृष्टि भाव

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अमूढ दृष्टि अर्थात् श्रद्धा की स्थिरता .

मूढ दृष्टि अर्थात् श्रद्धा की अस्थिरता .

स्व धर्मीय भगवान् , गुरु एवं आचार-प्रणालि पर जैन व्यक्ति को पूर्ण श्रद्धा होती है .
अन्य धर्मीय भगवान् , गुरु एवं आचार-प्रणालि के प्रति जैन व्यक्ति को श्रद्धा होती नहीं है .
किसी कारण से अन्य धर्मीय भगवान् , गुरु एवं आचार-प्रणालि के लिये जैन को श्रद्धा हो जाती है तब उसे मूढ दृष्टि दोष लगता है .

तीन बातें समझ लेनी चाहिए .

१ .

+ अन्य धर्मीय भगवान् के चमत्कार और प्रचार से प्रभावित होकर कोई स्व धर्मीय भगवान् को मानना छोड़ दे और अन्य धर्मीय भगवान् का भक्त बन जाएं तब उसे मूढ दृष्टि दोष लगता है .
+अन्य धर्मीय गुरु के चमत्कार और प्रचार से प्रभावित होकर कोई स्व धर्मीय गुरु को मानना छोड़ दे और अन्य धर्मीय गुरु का भक्त बन जाएं तब उसे मूढ दृष्टि दोष लगता है .
+अन्य धर्मीय आचार प्रणालि के फायदे और प्रचार से प्रभावित होकर कोई स्व धर्मीय आचार प्रणालि को मानना छोड़ दे और अन्य धर्मीय आचार प्रणालि का अनुयायी बन जाएं तब उसे मूढ दृष्टि दोष लगता है .

२ .

कोई अन्य धर्मीय भगवान् , गुरु एवं आचार-प्रणालि की तुलना में , स्व धर्मीय भगवान् , गुरु एवं आचार-प्रणालि को कमज़ोर या अव्यवहारु या हीन मानने लगता है तब उसे मूढ दृष्टि दोष लगता है .

३ .

कोई स्व धर्मीय भगवान् , गुरु एवं आचार-प्रणालि को जितना सन्मान देता है उतना ही सन्मान अन्य धर्मीय भगवान् , गुरु एवं आचार-प्रणालि की तुलना को देने लगता है तब उसे मूढ दृष्टि दोष लगता है .

मूढ दृष्टि दोष से खुद को मुक्त रखना उसे ही अमूढ दृष्टि भाव कहते है . 

स्वाध्याय – 

१ . मूढ दृष्टि दोष किसे कहते है ?
२ . मूढ दृष्टि दोष का प्रथम प्रकार क्यां है ?
३ . मूढ दृष्टि दोष का द्वितीय प्रकार क्यां है ?
४ . मूढ दृष्टि दोष का तृतीय प्रकार क्यां है ? 

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