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जैन सिलेबस : तप आचार . ७ : प्रायश्चित

तप आचार के बारह प्रकार में से प्रथम छह प्रकार को बाह्य तप कहते है . तप आचार के बारह प्रकार में से शेष छह प्रकार को अभ्यंतर तप कहते है .
तप का सातवा प्रकार है प्रायश्चित्त . पापो की मांफी मांगने की प्रक्रिया को प्रायश्चित्त कहा जाता है .
तीन बातें हैं .
१ .
आप अपने पाप को पाप के रूप में स्वीकार करें और मन में उस पाप के लिए पछतावा बनाए .
आप अपने अपराध को अपराध के रूप में स्वीकार करें और मन में उस अपराध के लिए पछतावा बनाए .
आप अपने दोष को दोष के रूप में स्वीकार करें और मन में उस दोष के लिए पछतावा बनाए .
२ .
आप अपने पाप , अपराध अथवा दोष का प्रामाणिक आत्म निवेदन गुरु के समक्ष करें तथा गुरु से प्रायश्चित्त की याचना करें .
३ .
गुरु प्रायश्चित्त में जो भी धर्मप्रवृत्ति अथवा सत्कार्य करने की सूचना दे उसे जल्द से जल्द कर लें .

जीवन भर के पापों का प्रायश्चित्त भी करना चाहिए .
एक साल के पापों का प्रायश्चित्त भी करना चाहिए .
चार मास के पापों का प्रायश्चित्त भी करना चाहिए .
पंद्रह दिनों के पापों का प्रायश्चित्त भी करना चाहिए .
——
स्वाध्याय –
१ . प्रायश्चित्त किसे कहते है ?
२ . प्रायश्चित्त का प्रथम नियम क्यां है ?
३ . प्रायश्चित्त का द्वितीय नियम क्यां है ?
४ . प्रायश्चित्त का तृतीय नियम क्यां है ?

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