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गुणानुवाद – अषाढ वद चौदस

अंग्रेज लोग भारत छोड के जा रहे थें उस के पूर्व के वर्षों में भारतीय परंपराओं को कमझोर बनाने की उनकी कोशिश गतिमान् थी ।

हमारी परंपरा कें दो मूलस्तंभ रहे हैं ।

एक , साधुसंस्था । दो , शास्त्र और शास्त्रानुसारी परंपराएं ।इन दोनों के कारण ही हजारों सालों से देश को संस्कार मिलते रहे हैं । अंग्रेज लोगों ने कुछ श्रीमंतों को , कुछ बौद्धिकों को प्रभावित किया और उनके जरिये भारतीय मूलस्तंभ की गौरवहानि हो ऐसा माहोल बनाया ।
एक समय ऐसा आ गया कि दीक्षा देना या दीक्षा देना ईन दोनों कार्य का विरोध होने लगा । साधुओं की संख्या न बढें ऐसा दबाव बनाया जा रहा था ।
एक समय ऐसा भी आ गया कि जब शास्त्र और परंपराओं को असांप्रत मानने वाले लोग हद से अधिक बढने लगे थें ।

तब श्री रामचंद्रसूरीश्वरजी महाराजा , मुनि अवस्था में थें . साधुसंस्था और शास्त्र के लिये जो नेगेटिव वातावरण बनाया जा रहा था उसका आपने प्रबल प्रवचन और कुशल व्यवस्थापन के जरिये प्रतिकार किया .
आज अलग अलग शहर एवं गांव के सेंकडों संघों में जैन मुनिओं के चातुर्मास हो रहे हैं जिस के जरिये लाखों लोग लाभान्वित हो रहे हैं . यह संभवित हो रहा है क्योंकि आज जैन साधुसाध्वीओं की संख्या विशाल हो चुकी है . अंग्रेजों के समय में यह संख्या कम होती जा रही थी तब श्री रामचंद्रसूरीश्वरजी महाराजाने जैन साधुसाध्वीओं की संख्या बढने लगे और बढती रहे ऐसे प्रयत्न कियें , जिस में अनेक समकालीन आचार्य भी साथ में रहे . आप के खुद के शिष्य १२१ थें . आप के कारण जो दीक्षित बनें उनकी संख्या अंदाझन चारसों की है .
आज साधुसंस्था को विशाल रूप मिल चुका है .
आज शास्त्रों को एवं शास्त्रीय मंतव्यों को पूर्ण आदर मिल रहा है . इतिहास में जब मूलस्तंभ की रक्षा का घटना क्रम को लिखा जायेगा तब श्री रामचंद्रसूरीश्वरजी महाराज का नाम प्रथम क्रमांक पर दिखाई देगा .

हमें हमारे उपकारीओं को याद करते रहना चाहिये .जिस परंपरा का लाभ हमें मिल रहा है उसे अखंड बनाये रखने के लिये हमारे पूर्वजों ने जो अतुलनीय पुरुषार्थ किया उसे हम कैसे भुल सकते हैं ?
महापुरूषों की यह खासियत होती है कि वो अपने जीवनकाल में ऐसे कार्य कर लेते हैं जिससे अगली पीढ़ीओं को बडा लाभ होता ही रहता है । आज की पीढ़ी पूर्व महापुरूषों को याद करें न करें लेकिन पूर्व महापुरूषों का उपकार आज की पीढ़ी पर बना ही रहता है ।

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