ज्ञान आचार , दर्शन आचार , चारित्र आचार एवं तप आचार की प्रवृतिओं में उत्साही गतिशील रहना उसे वीर्य आचार कहते है .
वीर्य आचार के तीन नियम होते हैं .
प्रथम नियम है – अनिगूहित .
अपनी शक्ति से कम धर्म नहीं करना चाहिए .
तीन बाते हैं –
१ .
हमारे पास जितनी शक्ति है उतना धर्म हमे अवश्य करना चाहिए . शक्ति से कम धर्म करना गलत है . अधिक से अधिक तप , त्याग , सामायिक , स्वाध्याय आदि धर्म करने की कोशिश करनी चाहिए .
२ .
हमारे पास जितना समय है उसमें से धर्म के लिए अधिक से अधिक समय निकालना चाहिए . धर्म के लिए कम समय निकालना गलत है . धर्म के लिए भरपूर समय निकालना चाहिए .
३ .
हमारे पास जितना धन है उसमें से अधिक से अधिक धन सत्कार्य में लगाना चाहिए . सत्कार्य में गिन गिन कर थोड़ा थोड़ा पैसा वापरना गलत है . सत्कार्य के लिए भरपूर धन वापरना चाहिए .
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स्वाध्याय –
१ . वीर्य आचार का प्रथम नियम क्या है ?
२ . प्रथम नियम की प्रथम प्रवृत्ति क्यां है ?
३ . प्रथम नियम की द्वितीय प्रवृत्ति क्यां है ?
४ . प्रथम नियम की तृतीय प्रवृत्ति क्यां है ?
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