धर्म की चार विधा है . दानधर्म , जिसमें अपनी सम्पत्ति को शुभ कार्य में लगाई जाती है . शीलधर्म , जिसमें उपलब्ध भौतिक सुख से यथासम्भव दूर रहने की कोशिश होती है . तपधर्म , जिसमें खानेपीने के शौख को संयम से बांधा जाता है . भावधर्म , जिसमें शुभ विचारो का सर्जन एवं स्थिरी करण किया जाता है . आप दानशीलतापभाव में स्वयंको जोड़े तब जाके धर्म साकार होता है . आज के समय में दानशीलतापभाव के उच्च स्तरीय साधक अनेक हैं .
उनके मुकाबले में आपका धर्म अत्यंत कम है .
आप अकेले अधिक धर्म नही कर पाते है . आप समूह के साथ जुड़े तब आपके धर्म का फलक विस्तीर्ण बनता है . समूह अर्थात् संघ के दानशीलतापभाव में आप को सहयोगी बनना चाहिए . संघ के प्रति जिसके मन में आदर है
वह संघ की सेवा नम्रता से करेगा . जो संघ के लिये आदरभाव रखता है उसीके मार्गदर्शन को संघ शिरोधार्य मान सकता है .
धर्म को करने से , कराने से , देखने से , सुनने से एवं धर्म की अनुमोदना करने से श्रेष्ठ पुण्य मिलता है ऐसा श्री आचारोपदेश शास्त्र में लिखा है .
चातुर्मासप्रवचन – 7
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