जननी और जन्म भूमि का गौरव हम जानते हैं पर मातृभाषा के गौरव का क्या ? हम लोग हमारी पुरातन भाषाओं को भूल चुके हैं . संस्कृत , प्राकृत और पाली भाषा के जानकार लोग आज कितने मिलेंगे ? हमारे कालिदास ने शकुंतला के मुख में और भवभूति ने सीता के मुख में प्राकृत भाषा को रखी है . हमारे रामायण , महाभारत संस्कृत भाषा में लिखे गए हैं . लेकिन आज हम संस्कृत , प्राकृत को समझ नहीं पा रहे हैं . शंकराचार्य के समय में हमारे देश के पोपट भी संस्कृत भाषा में उच्चारण करते थें .
आज हमारे बच्चों पर अंग्रेजी छाई हुई है , बच्चें अंग्रेजी में बोलना – लिखना – पढ़ना जानते हैं . लेकिन ये बच्चें घर की भाषा में अर्थात् हिंदी , गुजराती , मारवाड़ी , मराठी आदि में बोलना – लिखना – पढ़ना नहीं जानते हैं . जो भाषा हजारों साल से हमारे पूर्वजों में चली आ रही है उस भाषा में कुछ हद तक बोलना , हमारे बच्चों को आता है लेकिन उस भाषा में पढ़ना और लिखना हमारे बच्चों को नहीं जम रहा है . यह हमारे पूर्वजों का अपमान भी है और द्रोह भी है .
बोलना , लिखना और पढ़ना ये तीनों काम आप जिस भाषा में करते हो उस भाषा पर आप का अधिकार होता है . जरूरी है कि हमारे युवा और बाल संतान मातृभाषा में बोल भी सके , लिख भी सके और पढ़ भी सके . अंग्रेजी भाषा अर्थोपार्जन की व्यवस्थाओं में अनिवार्य हो चुकी है लेकिन घर में अंग्रेजी आधिपत्य कम हो सकता है . आप घर में होने वाली बातचीत में एक भी अंग्रेजी शब्द का उपयोग न करें . आप सोरी बोलते है उसकी जगह क्षमा बोलिये , थेंक्यु बोलते है उसकी जगह धन्यवाद बोलिये , रेड की जगह लाल बोलिये , येलो की जगह पीला बोलिये , कलर की जगह रंग बोलिये . कुछ डेढ़सौ दोसौ अंग्रेजी शब्द है जिन की जगह पर आप मातृभाषा के शब्द बोले तो चल सकता है . जब तक ये डेढ़सौ दोसौ शब्द घर की भाषा में घुसे हुए हैं तब तक आप के घर में भारतीय स्वराज्य अधूरा बना रहता है . भले ही आप स्वतंत्रता मनाए पर आप अंशत: पराधीन ही है .
हमारे संस्कृत और प्राकृत भाषा का इतिहास अतिशय प्राचीन है . हमारे युवा और बालक , संस्कृत और प्राकृत भाषा के जानकार बनेंगे तो हमारी आध्यात्मिक और सांस्कृतिक परंपराओं का उन्हें पूर्ण परिचय मिलेगा जिससे वो परलोक और परमलोक का स्थिर चिंतन कर पायेंगे . आज संस्कृत और प्राकृत भाषा , साधु संत और पंडितों तक सीमित हो गई है . अनुवाद पढ लेने से ज्यादा कुछ नहीं होता हैं . मूल भाषा आनी चाहिये .
हमारी परंपरा थी कि खाते वख्त हम पलांठी लगाकर बैठे . अंग्रेज हमे बुफे दे गये और हमने अपना लिया है . आज तीरंगा लहराने वालों ने बुफे से दूर रहने का संकल्प करना चाहिये . खुरशी टेबल भी केवल उन लोगों के लिये हो जो पलांठी लगा नहीं सकते है .
हमारी वेषभूषा में भारतीयता की झलक हंमेशा बनी रहे यह भी आज के दिन याद कर लीजियेगा . अंग्रेजों ने भारतीयता को नुकसान पहुंचाने के लिये हमारी भाषा संस्कृति , आहार पद्धति और वेषभूषा में जो अंग्रेजियत घुसाई थी वो आज भी हम पर हावी है . इसे पहचान कर खुद को सचेत रखे यह आवश्यक है .
हम अपनी ईच्छाओं के दास है . ईच्छाओं से विरहित मानस यह धर्म की परम उच्च अवस्था है . ईच्छाओं का अभाव ही सच्ची स्वतंत्रता है ऐसी अध्यात्म की परिभाषा है .
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