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रामायण चिंतन ( वर्धा प्रवचन )

रामायण

१ . शबरी

शबरी को मिलने श्री राम शबरी के आंगन आये यह छोटी घटना नहीं है . हम भगवान को मिलने मंदिर आते है और शबरी को मिलने श्री राम उस के घर पहुंच गयें . जीवन और मन को शुभत्व और शुभ तत्त्व की सेवा के साथ जोडना चाहिये . जो भी शुभ सेवा हम करते हैं उस से जब अहंकार बन जाता है , तब बात बिगड जाती है . नाम बनाने के लिये धरम का उपयोग मत करो . क्योंकि नाम किसी का टिका नहीं बल्कि सबही का नाम एक न एक दिन मिट जाता है . धर्म करो , आत्म शुद्धि के लिये . आप का कर्ताभाव खत्म हो जाये तभी भगवान् मिलते हैं .
शबरी ने जूठे बेर भगवान् को दिये यह प्रतीकात्मक घटना हमे समझाती है कि आप प्रभु के समक्ष और गुरु के समक्ष अपने अज्ञान को छुपाओ मत . आप खुद को ज्ञानी मानते रहे , शक्तिशाली मानते रहे तो भगवान् आप से दूर रहेंगे . स्वयं के अज्ञान को जान लो , स्वयं की तद् तद् अशक्ति को जान लो , स्वयं के अपराधों के विषय में सचेत बने रहो . स्वयं के अज्ञान , अशक्ति और अपराध का निवेदन प्रभु से करते रहो . प्रभु को मिलने का यही रास्ता है .

२ . वनवास का सुख

रामायण में अगर वनवास की घटना नहीं है तो
अन्य घटनाओं के होते हुए भी रामायण की कहानी खाली खाली लग सकती है क्योंकि वनवास के अभाव में सीताहरण , लंकाविजय जैसी घटनाएं भी असंभवित सी हो जाती है .एक वनवास ही है जो कथा को जीवंत बनाये रखता है . कैकयीजी को हम ने खलनायिका माना है जब कि रामजी कैकयीजी को सन्मान से देखते हैं . वनवास से लौटने पर रामजी कैकयीजी को आश्वासन देने गए थें .
प्रेरणा यह है जीवन में आए हुए दुःख के लिए आप का दृष्टिकोण निषेधात्मक अर्थात् नेगेटिव नहीं होना चाहिए .
दुःख की पांच विशेषताएं हैं .
एक , प्रत्येक दुःख से आप को एक सिख मिलती है . दुःख से सिखने मिलता है कि क्या नहीं करना चाहिए और क्या करना चाहिए .
दो , दुःख के कारण जो अनुभव मिलते है उस के कारण आदमी अंदर से मजबूत बन जाता है . जिसे दुःख मिला ही नहीं है वह आदमी जीवन के मामले में कमज़ोर रह जाता है .
तीन , जीवन में जिस समय कोई दुःख आता है उसी समय जीवन में कोई न कोई सुख भी जीवित होता है . सुख की उपस्थिति में दुःख आता है और दुःख की उपस्थिति में किसी न किसी सुख का अस्तित्व होता है . ऐसा कभी नहीं होता है केवल दुःख ही दुःख हो . जैसे कि आप जीवित हो , आप के हाथपैरआंखकान साबूत हैं यह एक बड़ा सुख है जो किसी भी दुःख पर भारी पड़ सकता है .
चार , जब दुःख आता है तो पुराने कर्मों का नाश शुरू हो जाता है जो एक आध्यात्मिक लाभ है .
पांच , दुःख और संकट हमें सत्य के करीब ले आते हैं अतः दुःख स्वयं एक उपदेश है .

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३ . दशरथजी 

 

एक पिता के रूप में दशरथजी की तीन विशेषताएं थी . वैराग्य , विवेक और विनय .
संतान का संस्करण करने में , संतान का आदर जितने में एवं संतान के साथ संवादिता अखंड रखने में ईन तीनों विशेषताओं की अहं भूमिका होती है . माता-पिता एवं सास-ससुर की गरिमा बढाने में इन्हीं में विशेषताओं का योगदान रहता है .
वैराग्य का अर्थ है भावनाओं पर आत्म संयम . राग मन से निकल जाये , द्वेष मन से मिट जाये तब वीतराग दशा का निर्माण होता है . जब तक हम वीतराग न बन पाये , वैराग्य आवश्यक है . राग की तीव्रता कमसेकम हो , द्वेष की तीव्रता कमसेकम हो यह वैराग्य है . घर के वडील को अपने व्यक्तिगत राग द्वेष को अंकुश में रखने चाहिये . जिस वडील में अधिकारभाव और पूर्वग्रह नहीवत् होते हैं वोही उचित संस्करण कर सकते हैं और आदरपात्र बनते हैं .
विवेक का अर्थ है नियत मर्यादा में रहना . क्या बोलना है और क्या नहीं बोलना है , कब बोलना है और कब नहीं बोलना है , किसे बोलना है और किसे नहीं बोलना है , क्यूं बोलना है और क्यूं नहीं बोलना है इस विषय में हंमेशा सावधानी रखनी चाहिये . विवेकवान् की सब सुनते हैं . अविवेकी की कोई नहीं सुनता है .
विनय का अर्थ है आदर देने की मानसिकता . व्यवहार और वार्तालाप मे नम्रता एवं मधुरता रखनी चाहिये . कठोरता और कटुता से संबंध में विक्षेप आ जाता है . वडील में नम्रता हो तब तो सोने में सुहागा हो जाता है . जो मान देता है उसे मान मिलता है , जो मान नहीं देता है उसे मान नहीं मिलता है .
दशरथ जी में पिता होने के नाते तीनों सद् गुण थें अतः वो रामचंद्रजी , लक्ष्मणजी , भरतजी और शत्रुघ्न को समृद्ध संस्कार दे पायें .
आप को राम जैसा बेटा चाहिये तो पहेले खुद दशरथ जैसे पिता बनना पडेंगा .

 

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